मैंने देखा था / प्रज्ञा रावत

मैंने देखा था
पिता की उन आँखों को
जो ट्रेन के रुकते ही
चल पड़ी थीं
उस पगडण्डी पर
जो पहुँचती थी
बुन्देलखण्ड कॉलेज

अच्छा हुआ जो दिन थे
तपती हुई गर्मी के
सड़कें थीं सूनी
और घरों के दरवाज़े
लगभग बन्द
वरना कैसे लौट पातीं
वो आँखें वापस
अपने भरे-पूरे संसार में।

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