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मैंने लिखा नाम बस वह ही / राकेश खंडेलवाल

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चन्दन की ले कलम, लिखा है
मधु से मैंने नाम वही इक
जिसके अधरों पर आते ही
साँसें सुरभित हो जाती हैं


दिनकर ने जो नाम लिखा है प्राची के स्वर्णिम पाटल पर
जिसे लिखा है नित्य निशा ने स्वप्निल नयनों के काजल पर
जिसे गुनगुनाती है नदिया, जलतरंग इक बजा बजा कर
जिसे चितेरा पुरबाई ने कलियों के कोमल आँचल पर

एक नाम वह, जिसकी ध्वनि से
जागी हुई सरगमें छूकर
कालिन्दी के तट, कान्हा की
वंशी गुंजित हो जाती है

एक नाम, अभिषेक हुआ जिसका सुधियों के सिंहासन पर
वही नाम, जिसकी छवि अंकित, आराधक के आराधन पर
एक नाम जो लिखा ॠचाओं में, श्रुतियों ने जिसे सुनाया
एक नाम जो घिरा सदा ही, जग के चेतन-अवचेतन पर

नाम वही, जिस पर आधारित
हैं शत जन्मों के अनुबन्धन
जिसको लिखते हुए लेखनी
भी आनंदित हो जाती है

लिखा नाम वह मैंने, जिसने सौंपी कलम हाथ में मेरे
नाम, निमिष में पी लेता है, छाये जो अवसाद घनेरे
जीवन की हर एक डगर में जो है रहा सदा सहपंथी
जिसकी गंधों में महके हैं, मेरी संध्या और सवेरे

नाम प्रीत का, नाम मीत का
जो धड़कन में बसा हुआ है
जिसकी बजती हुई ताल में
तंत्री झंकृत हो जाती है

लिखा नाम जिससे फूलों की सोई हुई गंध है जागी
लिखा नाम जो स्वति-मेघ का करता चातक को अनुरागी
वही नाम जो जोड़ रहा है इन्द्र शची को, शिव गिरिजा को
मैंने लिखा नाम वह कर देता जो हर मौसम को फागी

अक्षर अक्षर सरस रहा है
जिसकी सुन्दर संरचना में
वाणी जिसका उच्चारण
करते आनंदित हो जाती है