भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैंने शब्दों के भीतर उतरकर देखा / नीलोत्पल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं अपने घर में हूँ
यहीं से निकलता हूँ दुनिया के लिए

घुमड़ता रहा है अजीब-सी हालत में
मेरा दुख
पृथ्वी के चारों कोनों से छुआ है
पैर पटक निकले कई इन रास्तों से
मैंने कान लगा सुना
एक रास्ता मेरे घर से भी था

मैंने शब्दों के भीतर उतरकर देखा
वे ज़िंदा थे
लोग यूँ ही नहीं बकबका रहे थे
उनकी उलझनें, चेहरों पर तनाव और ख़ुशी
उठना-बैठना, काम के लिए निकलना
छोटे-छोटे झगड़े, सुलहें, एक-दूसरे के ख़िलाफ़ होकर भी
बातें करना अजीब था
यह मुमकिन नहीं था कि पीठ छिली न हो
या चेहरे पर कोई खरोंच या रंग न हो

ये लम्बी-चौड़ी नदियां
आकाश की गहन नीलिमाएँ हमारे ऊपर
पेड़ों से आच्छादित सिर
उड़ती चिड़ियाओं की पहरेदारी
और ख़ामोशी तौलता संगीत

संभव नहीं है कि
हम प्यार करें
और मौजूद न हो इसका स्पंदन

मेरे पास यही थे, जैसे मैं यही था
जैसे रंग में फेंटा रंग
टहनी से निकलती टहनियाँ
सुर में घुलतीं उठतीं गिरतीं साँसें

अगर मुझे होना था यही
कि अलग-अलग होकर भी
जैसे एक ही
जैसे सबके साथ अपनी उदासी कम करते हुए

शब्द जो दुनिया ने अपने-अपने ढंग से कहे
मैं शुक्रिया कहता हूँ
मैं उस रूठे प्रेमी की तरह रहा
जो बार-बार अपना घर छोड़ चला जाता है
परित्यक्त चट्टानों की ओर
इन्हीं शब्दों ने मछलियों की तरह
मेरे उदास समुंदर में रंगीनियाँ भरीं
यही मेरा घर है
यही दुनिया