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मैंने हथेलियों में तुम्हारी / सांत्वना श्रीकांत
Kavita Kosh से
मुस्कुराहट रखी
उसने जवाकुसुम का आकर धर लिया
मैंने अपने हृदय में अंकित-
तुम्हारे प्रेम का
आकर नापने का प्रयत्न किया
वह अनेका- अनेक ऊवाच लिपियों में परिवर्तित हो गया,
मैंने तुममें स्वयं को निहारा
तुम ओस, धूप, प्रपात,नदियों से
पृथक् कर समेट रहे थे मुझे,
तुमने इस क्रम में
दूब पर पड़ी ओस को समेटा
उस पर बने इंद्रधनुष को और परिष्कृत किया
'धूप के कण' की ऊर्जा माथे पर मली
नदियों से उत्साह मांगा
और तुममें मै उतर गई....