मैंने ही क्या किया / ललित मोहन त्रिवेदी
मैंने ही क्या किया किसी की लट उलझी सुलझाने को !
क्यों कोई जुल्फें बिखराता , मेरी धूप बचाने को !!
बांध बनाकर ये जलधारा जिसने साधी नहीं कभी !
दौनों हाथ जोड़कर जिसने , अँजुरी बाँधी नहीं कभी !
कोई नदिया रुकी नहीं है , उसकी प्यास बुझाने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता मेरी धूप बचाने को !!
जो लगते थे नमन प्रीत के , वो गरदन की अकड़न थी !
उसके मन में नृत्य नहीं था और पांव में जकड़न थी !
मैं पागल था जिद कर बैठा पायलिया गढ़वाने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता, मेरी धूप बचाने को !!
अहंकार से ऊपर उठकर ,अपनी आँखें खोलो तो !
जिसे तपस्या समझ रहे हो उसको ज़रा टटोलो तो !
वहां छुपी है 'चाह' अप्सरा आई नहीं रिझाने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता, मेरी धूप बचाने को !!
उसकी आँखों के आँसू से , अपने नयन भिगो न सके !
कभी विरह में या कि मिलन में, लिपट लिपट कर रो न सके !
बस लालायित रहे हमेशा, हम एहसान जताने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता, मेरी धूप बचाने को !!
' प्यार' हमारी अभिलाषाओं का विस्तार नहीं तो क्या है ?
तू मुझको दे ,मैं तुझको दूं , यह व्यापार नहीं तो क्या है ?
हमने प्रेम किया भी तो केवल सम्बन्ध भुनाने को !!
क्यों कोई जुल्फें बिखराता, मेरी धूप बचाने को !!