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मैं, तुम एक हुए, संशय क्या / अमरेन्द्र

मैं, तुम एक हुए, संशय क्या
परिचय रहने दो, परिचय क्या।

कल तक दोनों अनजाने थे
नद के कूल-किनारों-से हीे
भावों का जल बाँधे तो था
बँट जाते थे धारों से ही
अब तो बीच धार पर दोनों
बहते जाना है, अब भय क्या।

तट को डूब-डूब जाने दो
मत सोचो क्या हुआ नाव का
प्राणों को पुलकित जो कर दे
मोल यहाँ बस उसी दाव का
आज उफनती लहरें पा कर
कल का भूल गये निश्चय क्या।

नभ को नदिया निगल रही हो
जल में सूरज-चाँद समाए
नन्दन-वन में कोयल मुर्छित
चन्दन-वन को व्याल जलाए
तुम ही पल्लव कर लो इसका
समझाऊँगा मैं आशय क्या।