मैं, मेरा ममकार / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
ही केन्द्र बिन्दु है.
मेरे अहम् और अंहकार की परिधि में
और कोई समाता ही नहीं है.
मेरा भोग, मेरी भूख,
मेरा भोजन , मेरा भजन, मेरा वसन
मेरा जन्म, मेरा मरण,
मेरा दर्द ,मेरा कर्म मेरा मर्म ही सर्वांश है.
शेष जगत बहुत बाद की चीज़ और एकांश है.
घूम फ़िर कर हम अपने को ही प्यार करते हैं.,
औरों को प्यार करने के मूल में
मुझे मिलने वाला सुख
और स्वार्थ ही मूल है.
हम किसी को किसी के सुख के लिए प्यार करते हैं,
यह समझना ही भूल है.
अन्य को वंचित किए बिना जीना हमारी आदत ही नहीं है.
स्वयम को संचित करते हुए भी दंभ यह
कि हम अन्य के कर्ता, धर्ता, हर्ता और भर्ता हैं.
अन्य को बना बिगाड़ सकते हैं.
हम ही तारणहार और मारनहार हैं.
यह स्वार्थ जनित अहम् पूर्ण जड़ता
अहंमन्यता की विकृत मानसिकता ,
सम्यक ज्ञान या दर्शन नहीं,
मोह जनित भ्रान्ति है.
इन जडित विकारों से पृथ्वी भी,
बोझिल हो रही है.
सच पूछो तो धारण करने से मुकर रही है.
जिस दिन परमार्थ स्वार्थ बने.
उस दिन सृष्टि सात्विक सृजन के पर्व में,
तल्लीन हो जायेगी.