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मैं-सत्य / भावना सक्सैना

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क्या कहा-
पहचाना नहीं!
अरे सत्य हूँ मैं...
युगों युगों से चला आया।
हाँ अब थक-सा गया हूँ,
जीवित रहने की तलाश में
आश्रय को ही भटकता,
हैरान...
हर कपट निरखता।

आहत तो हूँ, उसी दिन से
जब मारा गया
अश्वत्थामा गज
और असत्य से उलझा
भटकता है नर
कपटमय आचरण पर
कोढ़ का श्राप लिए।

गाँधी से मिला मान,
गौरव पाया...
रहूँ कहाँ...
जब गाँधी भी
वर्ष में एक बार आया।
कलपती होगी वह आत्मा
जब पुष्पहार पहनाते,
तस्वीर उतरवाने को...
एक और रपट बनाने को...
बह जाते हैं लाखों,
गाँधी चौक धुलवाने को,
पहले से ही साबुत
चश्मा जुड़वाने को
और बिलखते रह जाते हैं
सैकड़ों भूखे
एक टुकड़ा रोटी खाने को।

चलता हूँ फिर भी
पाँव काँधों पर उठाए।
झुकी रीढ़ लिए
चला आया हूँ
आशावान...
कि कहीं कोई बिठाकर...
फिर सहला देगा,
और उस बौछार से नम
काट लूँगा मैं
एक और सदी।

मैं रहूँगा सदा
बचपन में, पर्वत में, बादल में,
टपकते पुआली छप्पर में,
महल न मिले न सही
बस यूँ ही...
काट लूँगा मैं
एक और सदी।