भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं अगर रोने लगूँ रूतबा-ए-वाला बढ़ जाए / मिर्ज़ा रज़ा 'बर्क़'
Kavita Kosh से
मैं अगर रोने लगूँ रूतबा-ए-वाला बढ़ जाए
पानी देने से निहाल-ए-क़द-ए-बाला बढ़ जाए
जोश-ए-वहशत यही कहता है निहायत कम है
दो जहाँ से भी अगर वसुअत-ए-सहरा बढ़ जाए
क़ुमरियाँ देख के गुल-ज़ार में धोका खाएँ
तौक़ मिन्नत का जो ऐ सर्व-ए-तमन्ना बढ़ जाए
हाथ पर हाथ अगर मार के दौड़ूँ बाहम
राह-ए-उल्फ़त में क़दम कै़स से मेरा बढ़ जाए
दाग़ पर दाग़ से ऐ ‘बर्क़’ मुझे राहत है
दर्द कम हो तो शब-ए-हिज्र में ईज़ा बढ़ जाए