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मैं अच्छा फ़न-कार नहीं / ज़ाहिद इमरोज़
Kavita Kosh से
परिंदे मुझ से दाना नहीं
अपनी मासूमियत ज़िंदा रखने के लिए
हिजरत कर जाते हैं
लोमड़ियाँ अपना दुश्मन पहचान लेती हैं
भेड़ें अपनी ऊन से ख़्वाब बुनती रहती हैं
लोग अपने मालिकों की लानत समेट कर भी
उन के क़दम मापते रहते हैं
जैसे भी हो
ज़िंदा रहना एक फ़न है
ज़िंदगी के खेल में अब तक
मैं इज़ाफ़ी किरदार ही रहा हूँ
जिसे कभी भी खेल-बदर किया जा सकता है