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मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

मैं अनेक वासनाओं को चाहता हूँ प्राणपण से
उनसे वंचित कर मुझे बचा लिया तुमने।
संचित कर रखूंगा तुम्हारी यह निष्ठुर कृपा
जीवन भर अपने।

बिना चाहे तुमने दिया है जो दान
दीप्त उससे गगन, तन-मन-प्राण,
दिन-प्रतिदिन तुमने ग्रहण किया मुझ को
उस महादान के योग्य बनाकर
इच्छा के अतिरेक जाल से बचाकर मुझे।

मैं भूल-भटक कर, कभी पथ पर बढ़ कर
आगे चला गया तुम्हारे संघान में
दृष्टि-पथ से दूर निकल कर।

हाँ, मैं समझ गया, यह भी है तुम्हारी दया
उस मिलन की चाह में, इसलिए लौटा देते हो मुझे
यह जीवन पूर्ण कर ही गहोगे
अपने मिलने के योग्य बना कर
अधूरी चाह के संकट से
मुझे बचा कर।

मूल बांग्ला से अनुवाद : रणजीत साहा