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मैं अपनी आँखों में इस पृथ्वी को घुमाती हूँ / मुइसेर येनिया
Kavita Kosh से
काश मेरे पास वो पैर होते जिनसे चलकर
दूर चली जाती इस दुनिया से
मैं किसकी जुबान थी
जब जी रही थी
हर साँस जैसे अपव्यय
मैं आई और सीखी
जीने की तमीज़ — कैसे ? —
मेरी मनुष्यता इकट्ठी होती गई कविता में
शब्दों के खालीपन में
जो दर्पण की तरह चमकता था
किसकी जुबान थी मैं
— खुद के साथ — जब जी रही थी
कभी किसी माँ ने नहीं बचाया मुझे
इस दुनिया से ।