मैं अपने अपनेपन से मुक्त हो कर, निरपेक्ष भाव से जीवन का पर्यवलोकन कर रहा हूँ।
एक विस्तृत जाल में एक चिड़िया फँसी हुई छटपटा रही है। पास ही व्याध खड़ा उद्दंड भाव से हँस रहा है।
चिड़िया को फँसी और छटपटाती देख कर मुझे पीड़ा और समवेदना नहीं होती, मैं स्वयं वह चिड़िया नहीं हूँ। न ही मुझे सन्तोष और आह्लाद होता है-मैं व्याध नहीं हूँ। मुझे किसी से भी सहानुभूति नहीं है। मैं तुम्हारी माया के जाल को दूर से देखने वाला एक दर्शक हूँ।
मैं अपने अपनेपन से मुक्त हो कर, निरपेक्ष भाव से अपने जीवन का पर्यवलोकन कर रहा हूँ।
दिल्ली जेल, 18 दिसम्बर, 1932