मैं अपने मन की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता... / प्रदीप जिलवाने
मैं अपने मन की सुनता तो तुम्हें अब तक चूम चुका होता
यानी किन्हीं पके हुए शब्दों में बता सकता कि
तुम खारी हो या मीठी हो
और यह भी कि
तुम्हारी देह में जो खिलते हैं, उन फूलों को
किन पहाड़ों से रंगत हासिल है
मैं अपने मन की सुनता तो अपने समस्त खालीपन को
तुम्हारे हर खालीपन में उड़ेलकर भर चुका होता
यानी हमारा खालीपन मिलकर भरे होने का भ्रम देता
और तुम्हारी इन हुनरमंद आँखों में, जो तिलिस्म रचती हैं
तेल की तरह तैर रहा होता ऊपर-ऊपर
मैं अपने मन की सुनता तो तुम नींद से बाहर भी
रच रही होती मेरे होने, न होने को
यानी नींद में मुझे अपना बिस्तर नहीं काटता
और जो कभी कँपकँपाती ठंड से मेरी हथेली
किसी अलाव की तरह मौजूद होती तुम
लेकिन मैं अपने मन की उम्मीदों पर खरा नहीं उतरता
यानी वह मुझसे थोड़ा साहस माँगता है
और मेरे पास बहाने इतने हैं,
जितना दुनिया में कचरा