मैं अपने हर जन्म में / ऋतु त्यागी
"मैं अपने हर जन्म में स्त्री ही होना चाहूँगी"।
मैंने एक दिन अपनी प्रार्थना
ईश्वर के कानो में फुसफुसायी।
ईश्वर ने मेरी तरफ देखा
और मुस्कुराकर
मेरे भीतर रेंगते दर्द
गिले शिकवों की लंबी प्रार्थनाओं का
ब्यौरा मेरे सामने रख दिया
जो मैंने बार बार उनके सामने
हर उस समय दर्ज़ की थी
जब मेरे पलकों से
आसुँओं के झरने झरझराये थे।
मैं अचरज में थी
कि ईश्वर को मेरी एक-एक प्रार्थना की ख़बर थी
बस मैं ही थी जो भूलती जा रही थी
मैंने एक बार फिर
ईश्वर की तरफ अपनी प्रार्थना भरी नज़र से देखा
और बुदबुदायी जो सिर्फ़ उन्होंने सुना
और मेरे भीतर रेंगते दर्द
गिले शिकवों की मेरी
लंबी प्रार्थनाओं का ब्यौरा समेटकर चले गये
मैंने तो बस उस समय
उनसे इतना ही कहा था
कि "एक स्त्री ही है जो
अपने हर दर्द से पर्दा सरकाकर
फिर से जुटा लेती है उम्मीदों का मरहम
पर
पुरुष का क्या ?
वो चुप- चुप रोयेगा
पर ख़ुद को कभी स्त्री नहीं होने देगा"।