मैं अब तक मर चुकी होती / सरस्वती रमेश
मैं अब तक मर चुकी होती
अपने पूरे वजूद को समेटकर
पर मुझे शायद और जीना था
और मुझे बचाने आ गए वह लोग
जो असल में इंसान नहीं थे
दरअसल इंसान की नजरों में
उन सूक्ष्म प्राणियों की कोई कीमत भी नहीं है।
पर मुझे बचाया था एक मैना की प्रतीक्षारत आंखों ने
जो हर सुबह मेरी छत पर
मेरे आने का इंतज़ार करती है।
मुझमें जीने की आस जगाई
उस थूथे मगर हरे विशाल पेड़ ने
जड़ समेत उखाड़ कर जिसका
दर बदला गया था।
मेरे बचे रहने की असल वजह
फूल पर बैठी वह तितली थी
जिसके नीले पंखों पर
तमाम कलुषताओं के बावजूद
काली धारियों की नक्काशी कायम थी।
मुझे बचा कर रखा था
गर्मियों की गहरी रातों में
पत्थरों के शहर पर चलती
ठंडी पुरवाई के झोकों ने।
तमाम अराजकता के बीच
अमराई से आती मादक सुगंध
पके महुवे की मिठास
गेहूँ की मचलती बालियाँ
और गन्ने के खेतों में फड़फड़ाती
पत्तियों के शोर ने
मेरी शून्य चेतना में कम्पन की थी।
मुझे बचाया है
उस बलखाती नदी की धाराओं ने
जिन्होंने तरक्की का विष पीकर
अपने पवित्र कंठो को नीला कर लिया है
और दधीचि के समान
अपनी अस्थियों तक का दान कर दिया है।
और उन प्रवासी पक्षियों की आवक ने
जिन्होंने शहरों की जहरीली धुंध को
अपनी सांसों में पनाह दी
मगर अपनी यात्रा को कभी स्थगित न किया।