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मैं अमृत-मंथन क्या जानूँ / गोपालदास "नीरज"

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मैंने जीवन विषपान किया, मैं अमृत-मंथन क्या जानूँ!
मैं दीवानों का भेष लिए, सुख-दु:ख का चिन्तन क्या जानूँ!

शैशव में ही जैसे मैंने, जीवन का चिर-अभाव चूमा
यौवन के चंचल दिवसों में, बस हारा हुआ दाँव चूमा
मैं चूमा करता अंगारे, फ़िर मधुमय चुम्बन क्या जानूँ।

अपनी पलकों में रो-रो कर मैं नित मदिरा पी लेता हूँ
उसके जग में ही मर-मर कर, मैं जगती में जी लेता हूँ
मैं मर-मर कर जीता जग में, फ़िर जग का जीवन क्या जानूँ।

सर्वस देकर पीड़ा लेकर, मैंने जग से व्यापार किया
अपना मादक संसार छोड़, चिर पीड़ा का संसार लिया
मैं जीवन का एकाकी पथ, पग-पायल-रुनझुन क्या जानूँ।

सूखी आहों के गीले घन, करते मधु की मीठी किलोल
जर्जर चिर-पीड़ित-प्राण मगर रह जाते बस पीड़ा टटोल
मैं बादल का बिखरा टुकड़ा, नभ का नीलांगन क्या जानूँ।

प्रीतम की प्रीत-पगी प्रतिमा, सावन के बादल सी रिमझिम
भीगी पलकों पर नाच रही, जैसे निशि में गिरती शबनम
मैं पूर्ण एक जल के कण में, पत्थर का पूजन क्या जानूँ।