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मैं आऊंगा / पंकज सिंह

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गेरू से बनाओगी तुम फिर

इस साल भी

घर की किसी दीवार पर ढेर-ढेर फूल

और लिखोगी मेरा नाम


चिन्ता करोगी

कि कहाँ तक जाएंगी शुभकामनाएँ

हज़ारों वर्गमीलों के जंगल में

कहाँ-कहाँ भटक रहा होऊंगा मैं

एक ख़ानाबदोश शब्द-सा गूँजता हुआ


शब्द-सा गूँजता हुआ

सारी पृथ्वी जिसका घर है


चिन्ता करोगी

कब तक तुम्हारे पास लौट पाऊंगा मैं

भाटे के जल-सा तुम्हारे बरामदे पर


मैं महसूस करता हूँ

तुलसी चबूतरे पर जलाए तुम्हारे दिये

अपनी आँखों में

जिनमें डालते हैं अनेक-अनेक शहर

अनेक-अनेक बार धूल


थामे-थामे सूरज का हाथ

थामे हुए धूप का हाथ

पशम की तरह मुलायम उजालों से भरा हुआ


मैं आऊंगा चोटों के निशान पहने कभी


(रचनाकाल : 1980)