मैं आत्महत्या नहीं करूंगी / ज्योति जङ्गल / सुमन पोखरेल
आकाश को जीतकर
कोने-कोने पर बहती हवा,
खून के छींटे ढो-ढोकर
हार कर थम जाएगी,
इंद्रधनुष के रंगों में,
केवल एक ही रंग रह जाएगा,
मेरे खून का, मेरे विघात का,
मुझे अनंत समय तक
इन साधकों को बचाना है,
इस ब्रह्मांड की सुंदरता,
जीने में ही बसी हुई है,
इसलिए, मैं आत्महत्या नहीं करूंगी।
इन आँखों ने मुझे,
माँ से परिचित कराया है,
यात्रा में आज तक
दौड़ते, कूदते, गिरते, उठते,
हँसते, रोते,
यही ज़िंदगी साथ आई है,
अगर यह साथ-साथ न आई होती
तो तुम्हारे सपनों की चाह,
कहाँ जन्म लेती? कहाँ मिट जाती?
चेतना का इस स्वर्ग को
कौन सा अंधकार भोगता ?
मृत्यु तो सामना करने पर डर जाती है,
या वह
मुक्ति का अनिवार्य द्वार है,
खुद ही खुल जाएगा
चीरकर चलती नसों को,
मरोड़कर सिर को टिकाने वाली गर्दन को
निगलकर, जहरीली जलन को
मृत्यु का क्यों अपमान करें?
उसकी श्रद्धेय आगमन तक,
इस सृष्टि की चाँदनी को पीती रहूँगी मैं,
धब्बों के साथ, अमावस्या के साथ!
यह अतृप्ति ही अत्यन्त न्यायिक है,
मैं अन्याय नहीं करूंगी प्राण के साथ
मैं आत्महत्या नहीं करूंगी।
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