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मैं आ रहा हूँ / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
Kavita Kosh से
मैंने देखा आकाश की ओर-
मुझे दीख पड़ा, तुम्हारा चेहरा
मैंने आँखें बन्द कीं
मुझे दीख पड़ा, तुम्हारा चेहरा।
बहरे हो जाएँ वज्र भी इतनी ऊँची आवाज़ में
मुझे पुकार रही थी तुम।
अपने नन्हें कोमल और भरे गले से
रात के चीथड़े-चीथड़े कर
वे कौन हैं, जो रो रहे हैं?
मृत्यु के आतंक में जीवन को जकड़कर
कौन हैं, जो रो रहे हैं!
तभी तो तुम मुझे इतनी ऊँची आवाज़ में पुकार रही हो
कि बहरे हो जाएँ वज्र भी।
आ रहा हूँ मैं
अपने दोनों हाथों से अन्धकार को ठेलता-हटाता।
वे कौन हैं जो ताने हुए हैं संगीनें-इन्हें हटाओ!
कौन हैं जो चिन रहे हैं दीवारें-इन्हें तोड़ो!
सारी धरती को जोड़कर
मैं साथ लिये आ रहा हूँ
दुर्दम्य दुर्निवार शान्ति।