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मैं इक ख़ाली कश्ती दरिया और है अब / कृश्न कुमार 'तूर'

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मैं इक ख़ाली कश्ती दरिया और है अब
देखूँ तो नैरंगे तमाशा और है अब
 
एक क़दम मंज़िल के आगे और धरूँ
मेरे लहू की प्यासी दुनिया और है अब

मेरी ज़ात की गिरहें खुलती जाती हैं
मेरे अन्दर कोई तमाशा और है अब

गूँज रहा हूँ जैसे कोई ख़ाली मकाँ
एक आसेब आँखों ने देखा और है अब

वो जो पहले बन्द किताब के जैसा था
आज खुला तो मैंने देखा और है अब

मैं भी शगाफ़ करूँ बाहर की दुनिया में
आख़िकार ये दिल भी तन्हा और है अब

मैंने उसको चाह लिया जी भर कर ‘तूर’
इसके आगे मेरी दुनिया और है अब