भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं इक ख़ाली कश्ती दरिया और है अब / कृश्न कुमार 'तूर'
Kavita Kosh से
मैं इक ख़ाली कश्ती दरिया और है अब
देखूँ तो नैरंगे तमाशा और है अब
एक क़दम मंज़िल के आगे और धरूँ
मेरे लहू की प्यासी दुनिया और है अब
मेरी ज़ात की गिरहें खुलती जाती हैं
मेरे अन्दर कोई तमाशा और है अब
गूँज रहा हूँ जैसे कोई ख़ाली मकाँ
एक आसेब आँखों ने देखा और है अब
वो जो पहले बन्द किताब के जैसा था
आज खुला तो मैंने देखा और है अब
मैं भी शगाफ़ करूँ बाहर की दुनिया में
आख़िकार ये दिल भी तन्हा और है अब
मैंने उसको चाह लिया जी भर कर ‘तूर’
इसके आगे मेरी दुनिया और है अब