भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं इक चराग़ हूँ दहलीज़ पर सजा मुझको / राजेंद्र नाथ 'रहबर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
मैं इक चराग़ हूँ दहलीज़ पर सज़ा मुझको
बुझा न दे कहीं ये सर-फिरी हवा मुझको

मैं एक बर्ग हूँ और आंधियों की ज़द पर हूँ
न जाने ले के कहां जायेगी हवा मुझको

अजीब बात है जो खुद ही राह में गुम है
दिखा रहा है वो मंज़िल का रास्ता मुझको

करूँगा उस से गिला थक के राह में वो भी
क़दम क़दम पे जो देता था हौसला मुझको

मिलूंगा तुम को ब-हर गाम राहे-हस्ती में
मगर ये शर्त है दिल से पुकारना मुझको।