मैं इमरोज़ बना / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
साहिर होना आसान था!
शाएद मुश्किल भी हो;
लेकिन मैं साहिर नहीं बना
क्योंकि उससे ज़ियादः कठिन था
इमरोज़ होना!
इसलिए मैं इमरोज़ बना;
इमरोज़ होना;कोई मज़ाक नहीं है;
यह मैं अच्छी तरह से जानता था;
फिर भी मैं इमरोज़ बना!
मैंने महसूस किया;
एक अमृता के अंतर्मन को;
जिसमें बहुत उथल-पुथल मची थी;
जिसमें ठहराव कहीं था ही नहीं;
मैं जब उसको देखता;
उसकी काजल के ठीक ऊपर;
आँसुओं की इक झील दिखाई देती;
मैं आँसुओं की उस झील को सूखता हुआ;देखना चाहता था;
कभी-कभी तो मैं सोचता कि ये झील अगर नहीं सूखी
तो मैं इतने रोज़ प्यासा रहूँगा;
कि जब मुझे ज़ोरों की प्यास लगे
तो मैं पी जाऊँ;आँसुओं की एक-इक बूँद;
और उन आँखों में चमक आ जाए;
जिस से खिल उठें उसके आरिज़-ओ-लब पे उगे लाल गुलाब;
जिससे एक मधुर गीत गाती ख़ुशियों की लहर दौड़ पड़े उसके मन के बाग़ानों में;
और वो महसूस कर सके एक ठहराव;
इक सकून जिसे वो खो चुकी है;
इमरोज़ होना; मतलब सिर्फ अमृता होना;सिर्फ अमृता को जीना;
मैं भी वही कर रहा हूँ;जी रहा हूँ इक अमृता को;
लेकिन मैं कभी बाँधना नहीं चाहता;
उसे किसी बंधन में;
नहीं चाहता कि उसे कभी लगे
कि उसका अपना वज़ूद नहीं;
नहीं चाहता कि उसे कभी महसूस हो
वैसा जो उसका अतीत था;
बस! चाहता हूँ कि उसका साया बन के हमेशा उसके साथ रहूँ;
ताकि उसे किसी साहिर की ज़रूरत;
कभी महसूस ही न हो;
इक दफ़'अ इमरोज़ से पूछा गया;
कि आपको मालूम था;
अमृता साहिर से प्रेम करती है;
और साहिर अमृता से;
फिर भी आपने अमृता से ही
प्रेम किया; नज़दीकियाँ बढ़ायीं;क्यों?
इमरोज़ ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया;
कि मुझको मालूम था अमृता साहिर से प्रेम करती है;
लेकिन मुझे ये भी मालूम था कि अमृता जितना प्रेम साहिर से करती थी
उस से कहीं ज़ियादः प्रेम मैं अमृता से करता था;
मुझे ख़ुशी इस बात की होती है;
कि अमृता ने मुझे समझा;
कभी-कभी मैं सोचता हूँ;
कि एक इमरोज़ को समझने के लिए;
आज भी कोई अमृता हो सकती है?