मैं इमरोज़ हूँ. इमरोज़ / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
मैं तुम्हारी पहली मुहब्बत नहीं;
मैं कोई साहिर नहीं, प्रीतम नहीं;
मैं इमरोज़ हूँ. इमरोज़!
मैं ना रह पाऊँगा ख़ामोश भी;
मैं ना दूँगा तुम्हें अधूरी मुहब्बत;
वो चाय के प्याले, बुझी हुई सिगरेट
वो ख़ामोश लफ़्ज़ों भरे हुए ख़त;;
वो सिगरेट के टुकड़ों पे होठों की छुअन;
मैं ना दूँगा तुम्हें अधूरी-सी हसरत;;
मैं इमरोज़ हूँ. इमरोज़!
मेरे सीने पे या फिर पीठ पर ही तुम;
अपनी पहली मुहब्बत का नाम गढ़ना;
मैं पढूँगा तुम्हारी उँगलियों की हसरत;
वो नाकाम अक्षर-बा-अक्षर मुहब्बत!
मैं रोऊँगा अन्दर ही अन्दर महज़;
जलाऊँगा ख़ून-ए-जिगर का हर कतरा;
मैं तुम्हारी आँखों में मुस्कुराऊँगा,फिर भी;
मैं तुम्हें चाहूँगा और चाहूँगा क़यामत तक!
मैं इमरोज़ हूँ. इमरोज़!
तुम्हारी टेबल पे रक्खूँगा का चाय की प्याली;
उम्र की आख़िरी उस आख़िरी शब तक;;
बिना कुछ कहे ही, बिना कुछ सुने ही;
मैं चाहूँगा शिद्दत से चाहूँगा जब तक;
तूफाँ की हवाओं से लड़ जाऊँगा मैं
कि बुझने न दूँगा चराग-ए-मुहब्बत!
मैं इमरोज़ हूँ. इमरोज़!
मैं हर क़दम पे तुम्हारा हम-क़दम बनूँगा;
मैं हर सफ़र में तुम्हारा हम-सफ़र बनूँगा;
कि पी लूँगा होठों से आँसुओं के प्याले;
वो दिलों की सीलन, वो दोनों की चुप्पी;
वो आँखों का पानी,वो आँखों की सुर्खी;
अपनी पलकों की छाँव में रक्खूँगा तुमको;
तब ज़िन्दगी भी ख़्वाबों सी हसीन लगेगी;
मैं इमरोज़ हूँ. इमरोज़!
तुम्हारा इमरोज़ "...." !!