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मैं उसकी आँच में अपने को जलाती हूँ / अमृता भारती

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मैं उसकी आँच में अपने को जलाती हूँ।
जलने के लिए अपनी राख को बार-बार कोयला बनाती हूँ।

वह पर्वत के शिखर पर बैठा है
पर्वत एक नीला आकाश है
वह स्वयं एक नीला आकाश है

वह आकाश की नीलिमा लेकर नीचे उतरता है
छोटे-छोटे आकाशों में नीलता रखता है

वह अपना अर्धांग बाँट रहा है
आकाशों में नील, नील में नीलता रख रहा है

वह पर्वत के शिखर पर बैठा है
पर्वत पर एक नीला आकाश है
वह स्वयं नीला आकाश है

वह हर पल
अद्भुत रस की रचना करता है
मेरे हृदय के रोगों को
बढ़ाकर
मेरे शरीर पर सुइयों की तरह खड़ा रहता है।

मैं उसकी ईशता प्रकाशित करने के लिए
पुरातन दिये उठा रही हूँ
सूरज को नीचे और अग्नि को ऊपर जला रही हूँ
मैं सारे जगत की ओट में उसे देखती हूँ
अपनी आँखों में आँख--आँख में एक और आँख रखती हूँ।

वह अपने ही प्रकाश से मुझे छूता है
दियों को ओलट में और
अन्य सभी उपकरणों को स्वस्थान में रखता है

मैं अपनी लज्जा से आप ही मरती हूँ
अपने अंधेरों को और घना करती हूँ

वह मुझे मेरे बहुत पास मिलता है
मेरे ही अन्दर तिरछा खड़ा होता है
मैं अपनी वक्रता में उसकी बंकिमा छुपाती हूँ।
जगत के सारे रास्तों को ऋजु बनाती हूँ।