मैं उस जमाने का हूँ... (कवितानुमा एक कथा) / आनंद कुमार द्विवेदी
मैं उस जमाने का हूँ
जब
दहेज में घड़ी, रेडियो और साइकिल
मिल जाने पर लोग ...फिर
बहुओं को जलाते नहीं थे
बच्चे
स्कूलों के नतीजे आने पर
आत्महत्या नहीं करते थे
बल्कि ... स्कूल में मास्टर जी
और घर में पिताजी, उन्हें बेतहासा पीट दिया करते थे
बच्चे चौदह-पन्द्रह साल तक
बच्चे ही रहा करते थे
तब
मानवाधिकार कम लोग ही जानते थे !
मैं उस जमाने का हूँ
जब
कुँए का पानी
गर्मियों में ठंढा और सर्दियों में गरम होता था
घरों में फ्रिज नहीं मटके और 'दुधहांड़ी' होती थी
दही तब सफेद नहीं
हल्का ललक्षों हुआ करता था
सर्दियों में कोल्हू गड़ते ही
ताज़े गुड़ की महक....अहा ! लगता था
धरती ने आसमान को खुश करने के लिए
अभी अभी 'बसंदर' किया हो
अम्मा
गन्ने के रस में चावल डालकर 'रस्यावर' बना लेती थी
आम की बगिया तो थी पर 'माज़ा' नहीं
'राब' का शरबत तो था
पर कोल्डड्रिंक्स नहीं
पैसे बहुत कम थे
पर जिंदगी बहुत मीठी !
मैं उस जमाने का हूँ
जब
गर्मियां आज जैसी ही होती थीं
पर एक अकेला 'बेना'
उसे हराने के लिए काफी होता था
दोपहर में अम्मा, बगल वाली दिदिया
और उनकी सहेलियों की महफ़िल
'काशा' और 'फरों' की रंगाई
'डेलैय्या' और 'डेलवों' की एक से बढ़कर एक डिजायनें और उनपर नक्कासी
सींक से बने 'बेने' और उनकी झालरें
कला ! तब सरकार की मोहताज नहीं थी
बल्कि जीवन में रची बसी थी !
मैं उस ज़माने का हूँ
जब
गांव में खलिहान हुआ करते थे
मशीनें कम थीं
इंसान ज्यादा
लोग बैल या भैसो कि जोड़ी रखते थे
महीनों 'मड्नी' चलती थी
तब फसल घर आती थी
'कुनाव' पर सोने का सुख
मेट्रेस पर सोने वाला क्या जाने
अचानक आई आंधी से भूसा और अनाज बचाते हुए ..हम
न जाने कब
ज़िन्दगी की आँधियों से लड़ना सीख गये
पता ही नही चला !
मैं उस जमाने का हूँ
जब
किसान ...अपनी जरूरत की हर चीज़ ...जैसे
धान, गेंहू, गन्ना, सरसों, ज्वार, चना, आलू , घनिया
लहसुन, प्याज, अरहर, तिल्ली और रामदाना ....सब कुछ
पैदा कर लेता था
धरती आज भी वही है ...पर आज
नकदी फसलों का ज़माना है
बुरा हो इस 'पेरोस्त्राईका' और 'ग्लास्नोस्त' का
बुरा हो इस आर्थिक उदारीकरण का
जिस पैसे के पीछे इतना जोर लगा के दौड़े
अब
न तो उस पैसे की कोई कीमत है
और न इंसान की !!