मैं ऋणी हूँ सिर्फ तुम्हारा / अशोक कुमार पाण्डेय
कितनी जगह है तुम्हारी इन फैली हुई बाहों में
हर यात्रा की धूल समेट लेती हो मुस्कराती हुई
मेरी उदासी की कब्रगाह है तुम्हारी मुस्कराहट
कैसे प्यार किया हर बार तुमने इन उदासियों को
कैसे हर बार अपने काँधे पर रख लिए मेरे दुःख
मैं तुम्हें प्यार करता हूँ और अपने दुखों से बेइंतिहा नफ़रत
हमारे प्यार का फिर भी बिछौना बने ये दुःख
तुम आई थी मेरी ज़िंदगी में जैसे कोई चुपचाप आता हो किसी वीरान मक़बरे में
जैसे कोई बिखरी हुई घास और गर्द को बुहार कर बाल देता हो एक अगरबत्ती
जैसे कोई बिखरी हुई ईंटों को संभाल कर दे देता हो कोई शक्ल
प्यार करना क्या-क्या हो जाना होता है एक औरत के लिए?
मैं अपने युद्धों की महानता से गर्वोन्मत्त एक पुरुष
दुनिया भर को किसी पुरस्कार सा दिखाता अपने घाव
और तुम चुपचाप उन घावों पर रख देती अपने प्यार का मरहम
दूर से देखती विजय के उल्लास को
और सोख लेती अपनी देह में सारी थकान
हार के इस क्षण में जब नहीं कोई पास
जब बिखरी हुई सेनाओं से दूर बैठा हुआ अकेला
और योद्धाओं की सूची में जब कहीं नहीं मेरा नाम
तुम ही हो अकेली मेरे सिरहाने माथे की लकीरों से खेलती
तुम ही घावों के इस जंगल में रास्ता दिखाती मुझे
उँगलियाँ पकडे तुम्हारी मैं चल रहा किसी अबोध सा
एक दिन फिर पहुंचूंगा रणभूमि में
किसी इतिहास में दर्ज हो जाने की अदम्य लालसा से ग्रस्त
या कि इस समय में होने की विवशता से अवश
फिर भूल जाऊँगा तुम्हारी उंगलियाँ जैसे भूल गया था दुष्यंत
और सब दर्ज होंगे इतिहास में
युद्ध, शौर्य, कायरता, घाव, हथियार, नीति-अनीति
बस नहीं होगा कहीं उसमे तुम्हारे प्रेम का आख्यान...