भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं एक अधूरे से पहाड़ पर / नीलोत्पल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं एक अधूरे से पहाड़ पर
न कोई चोटी है न गर्त
बस चढता हूं
किसी ऐसे समय के लिए
जो गिरता है बिना संतुलन और हवा के

रोशनदानों से सारी रोशनियां जा चुकीं
सिर्फ़ छींटे हैं पानियों के
गीली ज़मीन नहीं, ख़ाली कोने नहीं,
दराजं भी ग़ायब हैं अपनी जगहों से
गुम हो चुकी दरवाज़ों की चाबियां भी नहीं मिलती

मैं भुल चुका हूं
घर और शब्द में प्रवेश करने से पहले
लौटना होता है ख़ुद मं

आश्चर्य नहीं कि
नहीं जानता हूं लौटने वाली सड़कों के बारे में

कुछ पर्याप्त चीजं थीं मेरे पास
और इंसान होने के सारे सबूत
इकठ्ठा कर लिए थे
जैसे संतुलन, आधार और आहार

पर मैं गिरा
सारे नैतिक उत्थानों के बीच

मेरी कमज़ोरी की ये सीमाएं थीं

मैं तैरता हूं अधूरे से पहाड़ पर
वहां से गिरना भी लगभग अंसभव