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मैं एक ऐसी बस्ती में पैदा हुआ / राकेश रंजन

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मैं एक ऐसी बस्ती में पैदा हुआ
जहाँ लोग दो पैसे के लिए एक दूसरे की जेब काटते थे
धोखा करते थे, प्रपंच रचते थे
और बात-बात में ढेर सारा बलगम या पीक थूककर
कहते थे — दुनिया बहुत ख़राब हो गई है

अपनी माँ-बहनों को वे सात तालों में
क़ैद कर रखना चाहते थे
मगर किसी और की माँ-बहनों का चरित्र-चित्रण करना
या उनकी शारीरिक संरचना का अध्ययन-विश्लेषण करना
वे अपना पुश्तैनी पेशा मानते थे

लोग रोज़ शाम दारू से बजबजाते घर आते थे
और नियमपूर्वक थोड़ी-बहुत भूमिका के बाद
अपनी पत्नियों को बेतरह पीटते
या माँओं को गालियाँ बकते थे
फिर भी पत्नियाँ अपने पतियों के लिए
माँएँ अपने बच्चों के लिए व्रत करती थीं, उपास रहती थीं
अनेक लातों से घिरी फुटबॉलों-सी होती थी उनकी ज़िन्दगी
पर उनके पास होते थे कुछ बड़े आदिम
दुखभरी कथाओंवाले गीत

हाँ, वहाँ धर्म भी जीवित था, पूजा-पाठ भी होते थे
लोग यज्ञ कराते थे, भगवान का नाम भी लेते थे
ज़्यादातर लोग साल में एक बार देवघर जाते थे
और सिर्फ़ इसी एक पुण्य के बल पर
वे अगले पूरे साल के कर्मों-दुष्कर्मों के लिए
निश्चिन्त हो जाते थे

सरकार के साक्षरता अभियानों से बेख़बर बच्चे
चोरी-छिपे बीड़ियों के सुट्टे मारते हुए कँचे खेलते थे
और लड़कियाँ अपने घरों का खाना पकाने के बाद
पड़ोस के घरों की बिल्लियाँ बनी फिरती थीं
लड़कियाँ समय से पहले सयानी हो जाती थीं
घर के काम-काज से फुर्सत निकालकर
वे राजकुमारों के ख़्वाब देखती थीं
कभी कोई लड़का किसी अकेले अँधेरे में
किसी लड़की का हाथ पकड़ लेता था
और डर से थरथराते, आवेश से हाँफते, वासना से काँपते
हुए कहता था — बहुत प्यार करता हूँ मैं तुमसे

फिर एक दिन लड़की की शादी
किन्हीं अलाँजी के लड़के फलाँजी से हो जाती थी
जो किसी चिलाँ शहर में कोई काम-वाम करते होते थे
इधर लड़का कुछ दिन तक निराश-हताश-असफल-असहाय
उदास सूरत लिए इधर-उधर डोलता फिरता था
फिर धीरे-धीरे सबकुछ ठीक-ठाक हो जाता था
बस कभी-कभी जब किसी उचाट दोपहरी में
नाई के यहाँ बाल बनवाते वक्त वह रेडियो पर
कोई सैड सांग सुनता था तो उसका कलेजा हहरने लगता था

उस छोटी-सी बस्ती में लोग छोटे-छोटे थे
छोटे-छोटे घर, छोटी-छोटी दुकानें
छोटी-छोटी कथाएँ और बहसें
उनकी इच्छाएँ छोटी-छोटी थीं
किन्हीं छोटी-मोटी जगहों पर कुछ छोटे-मोटे
काम करते होते थे वे
छोटी-छोटी बातों पर निर्भर थे उनके सुख-दुख
केवल एक चीज़ थी जो छोटी नहीं, बल्कि बहुत बड़ी थी
वह थी उनकी ज़िन्दगी की एकरस रफ़्तार

मैं एक ऐसी बस्ती में पैदा हुआ
जहाँ पैदा होने पर कोई गर्व नहीं मेरे भीतर
फिर भी जाने क्यों
मैं वहीं, उसी मिट्टी में जन्म लेना चाहता हूँ बारम्बार !