मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ / बसंत त्रिपाठी
मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ
कवि हूँ
खादी पहनता हूँ, बहस करता हूँ
फ़िल्में देखता हूँ, शराब पीता हूँ
बचे समय में अपनी कारगुजारियों को
सही साबित करने की कवायद करता हूँ
मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ
यद्यपि कुछ भी ठहरा हुआ नहीं
तेज़ी से घूम रहे लहू के आभासी ठहराव जैसा है यह
फूल प्यार बच्चे और चिड़िया
चिट्ठियाँ और कविताएँ
अपने समय की समस्त बुरी घटनाएँ और दुश्चिन्ताएँ
रक्त के भीतर बड़बड़ाता कोई पुराना सँस्कार
सब कुछ मिलकर इतना एक हो गया है
कि डरावने सपने आते हैं
मैं डरावने सपने देखते हुए
अपना मकान बनवाना स्थगित करता हूँ
बौखलाहट और नकार अब बीते दिनों की चीज़ है
सब कुछ पर केवल हामी है
कुछ न करने के दाखिल प्रतिज्ञा-पत्रों के बीच
कहीं मैं भी हूँ
बगदाद और बसरा की सड़कों पर
कैमरे की आँख से बचता हुआ
भारत में आम की लकड़ी की मेज़ पर झुका हुआ
कर्ज़ की किस्तों के भयंकर चक्रवात में घिरा हुआ
अपने समय का एक मामूली-सा कवि यानी मैं
शान्त मुद्रा में अशान्त समय की कविताएँ लिखता हूँ
कविता लिखने के सबसे ज़रूरी समय में
कविता लिखते हुए
मैं इतना अकेला और हताश हूँ
कि कहता हूँ — मैं एक ठहरे हुए पल में जी रहा हूँ ।