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मैं औरत कहाँ हूँ / महेश सन्तोषी

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दरिन्दों से घिरी हुई,
औरत की देह हूँ मैं,
मैं औरत कहाँ हूँ?

न मेरी कोई अस्मिता है और न ही कोई आत्मा,
मैं तो सिर्फ एक शरीर हूँ,
जिसे सारी सभ्यता आजीवन अनावृत्त देखना चाहती है,
और जिसे पुरुषों में राक्षस और मनुष्यों में देवता,
दोनों ही समान रूप से पैशाचिकता से भोगना चाहते हैं!

वहाँ से, जहाँ से इतिहास आरम्भ हुआ था
और वहाँ तक, जहाँ तक जाकर इतिहास थमेगा,
मुझे सामूहिक रूप से भोगकर, गिनती गिनना
पुरुष की सभ्यता का नया गणित बन गया है;
मुझे सार्वजनिक रूप से निर्वसन कर घुमाना,
शायद इतना ही पौरुष पुरुषों में शेष रह गया है!

इक्कीसवीं शताब्दी की ओर बाँहें फलाते हुए,
सोच रही हूँ कि अगर मैं सिर्फ देह रह गयी और औरत नहीं रही,
तो फिर मुझे माँ, बहन पुत्री और पत्नि कौन कहेगा?
और क्या शताब्दियों की सभ्यता ओढ़े हुए पुरुष से,
और सदियों से सँवरती हुई उसकी संस्कृति से,
मुझे थोड़ा-सा आवरण भी अपनी नग्नता ढांकने को नहीं मिलेगा,
थोड़ा-सा आवरण भी!