मैं और ख़ाली चा की प्याली-1 / प्रभाकर माचवे
आज प्रात ही कुछ धुँधली है, पाटल कलिका की पलकों पर —
पहली रिमझिम की बून्दें हैं । हरित, स्नात, चेतोहर कोंपल ।
वर्षा का दिन, बादल अनगिन, निरख रहा हूँ मलिन व अमलिन
एक-एक छिन चुके सुखाशा के साथी, अब हूँ संगी बिन...
मुझे कौन दे संजीवन ? दिल का थाला कब से ख़ाली है
शून्य दिशाएँ आन्धी-लक्षण, मैं हूँ, यह चा की प्याली है।
बादल सागर की आशीषें, या कि धरित्री का प्रतिऋण है ?
करुण-सजल बातास, अकेलापन क्यों मानव को दारुण है ?
क्यों है दाहक चाह कि मस्ती में कोई सपना झकझोरूँ
क्यों यह नाहक़ राह सत्य की भाती नहीं, आह दिल चोरूँ ?
खिला बाग़ है, मिला चोंच, भीगे पर सिमटाए दो चिड़ियाँ
बिजली के तारों पर टप्-टप् टूट रहीं बून्दों की कड़ियाँ !
आसमान है म्लान कहीं से सुनता हूँ भूपाली की गत...
क्यों हैं ये दीवारें अधबिच ? क्या था गत औ’ कौन अनागत !