मैं और ख़ाली चा की प्याली-2 / प्रभाकर माचवे
आधी जागृति, आधा सपना। मन में घुमड़न धूम मची रे
सरिता तट पर सिकता फैली, रजत चान्दनी नरम बिछी रे !
गत उत्कट है, भूखी-सी उस पार बज रही दूर नफ़ीरी
उस गत में है बाट किसी की जोही गई व ठाठ अमीरी
मैं अपने सूने कमरे में मोटे ग्रन्थों में डूबा —
जूझ रहा हूँ उस मस्तिष्क-प्रधान शिला से, कब ऊबा हूँ ?
क्या है ‘प्रमा', और क्या ‘मोनेड', क्या है यह ।
'अध्यास’, ‘प्रकृति’ ?
क्या फ़िख्टे की अलग धारणा ? ब्रैडले की मान्यता विकृति ?
सब मरुभूमि प्रायः लगते हैं बूढ़े, कुरूप ये दर्शन-गुरु
बिस्मिल्ला ही ग़लत, न करते हैं क्यों शुरुआत जीवन से ?
सुरूँ की तरुधारा... ताज मन्द-गन्ध, लोभान' रु अगुरु
पुरूरवा मुझमें जागा है : विवस्त्र ऊरु तिर रहे मन में...
‘छिः’ कोई आकर यों बोला ‘छाया है यह क्षणिक-शरीरी'
फिर भी आन जुड़े थे होंठों से क्यों होंठ कभी वे शीरीं !