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मैं और ख़ाली चा की प्याली-3 / प्रभाकर माचवे

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डाली-डाली पर कलियाँ हैं, उन्नत-भाल तमाल, चिर-हरे,
पर्ण-वर्ण-संचय, फ़व्वारे, युक्लिप्टस के पेड़ छरहरे;
उपवन ही ठहरा फिर क्यों न अनेकों होंगे वाँ ख़ुश-चेहरे
पर इस चह-चह के पीछे है क्या कोई गहरे में ‘वह' रे
जिस की विफल अनन्त प्रतीक्षा में बैठा हूँ याँ एकाकी
माली आता है, सुगन्ध के रहने देता सुमन न बाक़ी ।
रूप-गन्ध का समाँ बँधा है, पर सब कुछ लगता जाली है
किसने पेठ यहाँ अन्तरतम की वह सचाई पा ली है ?
दूर दिशाएँ नहा रही हैं, झीना ‘जीवन-पट' छोड़ा है
बुद्धि-भेद की सीमाएँ हैं, दृष्टि-ज्ञान थोड़ा-थोड़ा है
कब तक मग़ज़ मारता बैठूँ तुमसे काण्ट और बोज़ाँ के
तर्क घुला जाता है बाँके, उधड़ रहे सीने के टाँके...
जीवन धोखा है, तो हो, यह प्यार कभी जोखों से ख़ाली ?
यह सब एक विराट व्यंग्य है, मैं हूँ, सच, औ’ चा की प्याली !