मैं और तुम / अर्चना कुमारी
तुम हो और मैं भी हूं
मेरा दायरा धरती जितना
और तुम्हारा आकाश
मैं तुममें हूं
और तुम मुझमें हो
देह के कर्तव्य की वृत उतनी ही गोल है
जितनी पहले थी
मन की परिधि का विस्तार हैं हम दोनों
प्रेम के क्षेत्र की कैसी त्रिज्या
कैसा व्यास
और कौन सा क्षेत्रफल
हम मुक्त हैं
उन्मुक्त नहीं
स्वतंत्र हैं स्वछन्द नहीं
हमारी सीमाएं पूजा का थाल हैं
जिसमें जगमगाती हैं प्रार्थनाएं
दीपक की लौ बनकर
दीए सा मन
पुष्प की रंगो से सजा हुआ
तुम्हारे बांसुरी के स्वररंध्र से
श्वांस-श्वांस सुर बनकर मधुरिम गूंजता है
उन हरी वादियों में
जहां सारे मौसम नृत्य करते हैं कृष्ण बनकर
और प्रकृति राधा-राधा
मैं पात्र नहीं
फिर भी इच्छाओं का अतिक्रमण ही है
कि तुम्हारे द्वार पे खड़ी हूं
पुन: वापसी का पथ पांव में पहनकर
आगमन द्विरागमन और विदा से संश्लिष्ट है प्रेम
जितना सहज है उतना ही क्लिष्ट है प्रेम