मैं कविता लिखता हूँ / अमरजीत कौंके
मैं कविता लिखता हूँ
क्योंकि मैं जीवन को
इसकी सार्थकता में
जीना चाहता हूँ
कविता ना लिखूँ
तो मैं निर्जीव पुतला
बन जाता मिट्टी का
खाता पीता सोता
मुफ्त में डकारता
पेड़ों से मिली आक्सीजन
छोड़ता काबर्न-डाईआक्साईड
हवा दूषित करता
खराब करता अन्न
पृथ्वी पर बोझ जैसा
बन जाता हूँ मैं
खुद अपने को
लगने लगता पाप जैसा
लेकिन जब मैं कविता लिखता हूँ
पृथ्वी का दर्द
शब्दों में पिरोता हूँ
धरती पर रहते मनुष्यों के
दर्द में उनके साथ दुखी होता
उनकी खुशी में
मेरा अँग अँग खिल जाता
मैं कविता लिखता जब
उनके दर्द
उनकी खुशी के
गीत गाता
मैं शब्द शब्द जुड़ता
कविता बन जाता
मेरा अंदर बाहर
अजीब सी खुशी से भर जाता
मैं पृथ्वी का अन्न खाता हूँ
हवा से साँस लेता हूँ
जमीन के टुकड़े ने मुझे
रहने के लिये जगह दी है
कर्ज़दार हूँ मैं पृथ्वी का
मैं कविता लिखता हूँ
कि पृथ्वी का
कुछ ऋण उतार सकूँ।