भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं कहाँ दिखी / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देहों के घेरे के आगे भी होती हैं प्यार की एक रेखाहीन परिधि
जो तुम्हें नहीं दिखी जब दिखा, मेरा आधा या पूरा
शरीर ही दिखा तुम्हें, मैं तुम्हें कहाँ दिखी
हमेशा मांसल ही बने रहे, तुम्हारे स्पर्श
छूने को तो मेरा मन भी था, प्राण भी थे
आत्मा भी थी
मैं तुम्हारी परिणिता न सही, सुहागिन न सही
मैं तुम्हारी प्यास तो थी, तृप्ति तो थी
सम्भोगिता थी स्पर्शों के आगे नहीं गये
तुम्हारे आचरणों के कोई भी आयाम
यह मेरे प्यार का प्रारब्ध था
तो तुम्हारे प्यार की नियति थी देहों के घेरे के आगे भी...
तुम्हारी बाँहों में कसे, सिमटे रहे
मेरे जीवन के छुए अनछुए क्षितिज
सतही तृप्ति की अनुभूतियाँ भावनाओं के आधे-अधूरे आकाश
समय से नहीं मिलेंगे अब मुझे मेरे मन के मरुस्थलों के उत्तर
और न ही कोई उत्तर होंगे तुम्हारी असीमित
मांसलता के पास ना तुम जान सके, ना पहचान सके
किसी के अंदर का धुआँ अस्तित्व की समिधा
धीरे-धीरे मैंने तो दे ही दी
अपने प्राणों की, देह, अस्तित्व की आहुति
...देहों के घेरे के आगे भी।