मैं काश ! अगर तितली होती / शार्दुला नोगजा
मैं काश ! अगर तितली होती
नभ में उड़ती, गुल पे सोती ।
नवजात मृदुल पंखुडियों का
पहला-पहला क्रन्दन सुनती
अंकुर के फूट निकलने पर
गर्वीला भू-स्पंदन सुनती ।
हो शांत , दोपहरी काँटों की
पीड़ा सुन ह्र्दय बिंधाती मैं
नव प्रेमी-युगल की बातें सुन
उनके ऊपर मंडराती मैं ।
शर्मा महकी शेफाली का
रत-जगा करा दर्शन करती
और झरते सुर्ख गुलाबों का
गीता पढ़ अभिनन्दन करती ।
प्रथम रश्मि के आने से
पहले झट ओस पियाला पी
मैं अनजानी बन कह देती
थी रात ने कुछ कम मदिरा दी ।
गर कोई गुल इठलाता तो
ठेंगा उसको दिखलाती मैं
कभी उपवन छोड़ पतंगों की
डोरें थामे उड़ जाती मैं ।
तेरे सुमन सरीखे छ्न्दों का
मधु पी सुध-बुध खो जाती मैं
फिर शाम ढले यूँ लिपट-चिपट
उन्हीं छ्न्दों पे सो जाती मैं ।
मैं काश ! अगर तितली होती !