भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं किसी पावन चरण की धूल होना चाहती थी / उर्मिल सत्यभूषण
Kavita Kosh से
मैं किसी पावन चरण की धूल होना चाहती थी
धूल में रहकर खिले जो, फूल होना चाहती थी
छटपटातीं उर्मियां आ आ के लगती अंक मेरे
मैं किसी की चाहतों का कूल होना चाहती थी
प्राण बिंधते बुलबुलों के, जिं़दगी के राग होते
मैं किसी बेकल हृदय में श्ूाल होना चाहती थी
भूल फैले दामनों में जो खुशी के फूल भरती
मैं हमेशा एक प्यारी भूल होना चाहती थी
शाश्वत आलोक के सागर में ‘उर्मिल’ डूब कर मैं
सत्य के उत्कर्ष के अनुकूल होना चाहती थी।