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मैं कुछ दिन से यहाँ आकर बसा हूँ / ज्ञान प्रकाश विवेक
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मैं कुछ दिन से यहाँ आकर बसा हूँ
मिज़ाजे-शहर से ना-आश्ना हूँ
यही तो मेरे ग़म की इन्तहा है
कि मैं अन्धे शहर का आइना हूँ
भटकते हैं कई एकान्त मुझमें
शिलालेखों की तरह मैं खड़ा हूँ
तुझे शुभकामनाओं की पड़ी है
फटे कोने का ख़त मैं पढ़ रहा हूँ
अकेला दौड़ना है मेरी फ़ितरत
मैं घोड़ा अश्वमेधी यज्ञ का हूँ
यूँ गुज़रे लोग मुझसे दूर होकर
कि जैसे मैं भी कोई हादसा हूँ
कोई बिछुड़ा हुआ बालक हो जैसे
भरे मेले में ऐसे मैं खड़ा हूँ
मुझे मत तोड़िये धागा समझकर
कि यारो मैं किसी की आस्था हूँ.