भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं कुछ नहीं जानता / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता
अब भी अपने बारे में-
तुम्हारे बारे में-
संसार के लोगों के बारे में
क्योंकि मैं भी
जानने की प्रक्रिया को नहीं जानता
और अगर जानता हूँ तो
कम ही जानता हूँ
और तुम भी नहीं जानते,
न संसार के लोग ही जानते हैं
क्योंकि मैं भी-तुम भी-तमाम दूसरे वे भी
सब मेरे समान जानते हैं
शताब्दियों से आदमी होते-होते-
रंग-रूप बदलते-बदलते
एक से दूसरे युग में पहुँचते-पहुँचते
जिन-जिन रास्तों से होकर आए-गए-
उनमें खोते और अनजान होते गए
और अब एक नहीं-वही ‘मैं’ नहीं
वही ‘तुम’ नहीं
वही ‘वे’ नहीं
अनेकानेक हो गए हैं
जो ‘मैं’-‘तुम’ और वे से कतई अलग हैं
फिर भी मुझको
तुमको
उनको
जीना तो एक साथ है ही समानधर्मा होकर
दिक् और काल में
नई सृष्टि और नया सृजन तो करना है ही
आज के अब तक के विश्वव्यापी संवास को
पूरी तरह पराजित तो करना ही है
और तनाव को भेदकर
महान मानवीय मुक्ति
प्राप्त करना तो है ही
इसलिए अब हम सब
अपने-अपने व्यक्तित्व और अहं से
बाहर निकलें
जमीन से प्रवाहमान
जल-भरी जवान नदियों के समान
और नई समता के
अपार समुन्दर की ओर बढ़े
ताकि सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्रों
को हरा-भरा करें
न दुख रहे-न दर्द;
न कुत्ते की मौत मरे आदमी
न बंधन और बेड़ियों से बँधे
सुख और समृद्धि का साम्राज्य
चारों ओर
फूले और फले
और सदा ही बसंत-बहार रहे।

रचनाकाल: २९-०६-१९७७