मैं कुटज हूँ / मंजु लता श्रीवास्तव
मैं कुटज हूंँ
हो सका कब मैं पराजित
मैं सदा दुर्जय रहा
कर्म को ही भाग्य माना
कर्म से ही हूँ कुटज मैं
है विषम प्रतिकूल मौसम
पर सरजता हूँ सहज मैं
पीर का अभ्यस्त होकर
मैं सदा निर्भय रहा
हैं जड़ें इस्पात जैसी
पत्थरों को मोम करतीं
फोड़कर पाताल जल को
खींच लातीं तन सरसतीं
जिन्दगी को ध्येय माना
दृढ़ मेरा निश्चय रहा
प्राण में संजीवनी है
हृदय में उल्लास मेरे
वीत रागी मन सुदृढ़ है
कभी भी इत-उत न हेरे
हूँ जितेंद्रिय, स्वयंसिद्धम
सदा ज्योतिर्मय रहा
पाँव हैं पाताल में फिर
भी मैं नभ को चूमता हूंँ
गोद में पर्वत के मैं
अलमस्त होकर झूमता हूंँ
है हवा मुझको लुभाती
नेह ही आसय रहा
शस्य श्यामल पात मेरे
पुष्प हिमगिरि श्वेत सपने
ब्रह्ममय आकाश अंतर
समा बैठा मंत्र जपने
पादपों से तन लिये मैं
हृदय से शिवमय रहा