मैं केवल एक सखा चाहता था।
मेरे हृदय में अनेकों के लिए पर्याप्त स्थान था। संसार मेरे मित्रों से भरा पड़ा था। किन्तु यही तो विडम्बना थी- मैं असंख्य मित्र नहीं चाहता था, मैं चाहता था केवल एक सखा!
नियति ने मुझे वंचित रखा। इसलिए नहीं कि मैं ने कामना नहीं की, या खोज में यत्नशील नहीं हुआ। कितनी उग्र कामना की थी! और प्रयत्न? मैं ने इसी खोज में विश्व छान डाला और आज यहाँ हूँ...
दिल्ली जेल, 1 अगस्त, 1932