भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं कैसे ऊधो जोगिन भेस बनइहों / महेन्द्र मिश्र
Kavita Kosh से
मैं कैसे ऊधो जोगिन भेस बनइहों।
कर कंगन को काह करूँ मैं वेनी शीश दुरैहों।
कटि को नूपुर काह करइहो कइसे खाक लगइहों।
कुंडल कान नैन के काजर फूलन सेज गँवइहों।
महल छोड़ बन कइसे रहिहों मृग के छाल डँसइहों।
गजमुक्ता के हार त्याग के तुलसी हार लगइहों।
झोरी काँख कर लिया कमंडल घर घर अलख जगइहों।
ए ऊधो माधो से कहिहों वेगी श्याम घर अइहों।
द्विज महेन्द्र बिनु देखे मोहन नैन चैन ना पइहों।