मैं कोई उपदेशक तो हूँ नहीं / बोधिसत्व
देखो कितना पानी बरस रहा है
सूखा है पूरी तरह आसमान
सूखे आसमान पर वह अन्धेरे की तरह छा जाना चाहता है
मुझे काला रंग पसन्द है
अगर वह मन में न हो
मुझे उजला रंग पसन्द है
अगर वह सिर्फ़ कपड़ों और दीवारों तक ही न चढ़ा हो ।
क्या मेरी कविता मुझे बचाएगी
क्या तुम मुझे छोड़ कर चली जाओगी
तुम्हारे साथ इतना दूर चला आया हूँ
और इतने रास्ते पार कर चुका हूँ कि अब तो सही रास्ता भी नहीं पकड़ पाऊँगा ।
ज़रूरी नहीं कि घर लौटूँ,
ज़रूरी नहीं कि कहीं पहुँच ही जाऊँ
ज़रूरी नहीं कि चोट पड़ने पर भी शान्त बना रहूँ
जब पीटे जाने पर बोल उठती है ढोल तो मैं तो अभी थोड़ा-बहुत जीवित हूँ ।
सुनो सब कुछ स्वीकार करना
किंतु हिंसक मित्रता कभी न करना स्वीकार
एक शव दे सकता है साथ किन्तु
मैं उपदेशक नहीं
किन्तु कहता हूँ
खोट कपट से अर्जित सुख क्या सदा रहेगा
छीन-झपट से निर्मित सुख क्या सदा रहेगा ।
देखो रात सघन है आई
देखो वह रात के अन्धेरे की तरह सर्वत्र विराजने के लिए
औंधे मुख फोड़े की तरह संचित कर रहा है मवाद
और इससे अधिक मैं क्या कहूँ
मैं कोई उपदेशक तो हूँ नहीं ।