मैं कौन हूँ? / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
उम्र के इस पड़ाव पर
धीरे-धीरे अकेले होना
छूटना उन सबका
जिनसे ये जीवन था
क्या मृत्यु अकेली है?
कोई साथ नहीं
कहीं भी
कहीं तक भी नहीं
अगर ये पथ अकेला है
तो फिर इस जीवन का क्या अर्थ?
गर्भाधान से श्मशान
क्या इस स्वप्न का
यही दुःखद अंत है?
जिसे अब तक जीया
भोगा, खाया-पीया
क्या यह सब अर्थहीन था?
तो फिर इस संसार का
क्या सार है?
जिसने-जिसने छोड़ा बंधन
जो-जो बह गया घाट-घाट
क्या पाया उन्होंने?
लिख गये इतने ज्ञान के ग्रंथ
जिन्हें पढ़ना मुश्किल
समझना और भी कठिन
जिंदगी में ढालना असंभव-सा
क्या ब्रह्मांड एक कठिन यात्रा है?
क्यों यह जिज्ञासा
कि कौन हैं?
कहाँ से आये हैं?
कहाँ जाना है?
क्या उन चाँद-सितारों का
कोई ओर-छोर है?
क्या आकाशगंगाओं का
कोई प्रयोजन है?
या बस धरा की रचना ही
इस सारे ब्रह्मांड का अर्थ है?
इस खेल में क्या आनंद है?
शिकारी शिकार करता है
या
मनुष्य काल का भोजन बनता है
सिर्फ यही एक धरती
क्या संग्रहालय है?
सभी जगह की रचनाओं का
जिसे स्थापित किया है
इस सौरमंडल में
कोटि-कोटि प्रश्न
उत्तार बहुत थोड़े
जैसे सागर की एक बूँद
जिससे जल की प्रकृति तो पता लगती है
पर सागर की विशालता नहीं
कहीं कोई ऐसा कोना नहीं
जहाँ से इस समस्त को
इससे अलग होकर
इसकी संपूर्णता में देखे सकें
क्या ये विचार अपने आपमें
एक अनबूझ पहेली नहीं
पिंड, ब्रह्मांड, पार ब्रह्मांड
इससे परे क्या है?
बस यही प्रश्न
इस अकेलेपन का साथी है।