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मैं क्या करूँ? / अलेक्सान्दर कुशनेर
Kavita Kosh से
मैं क्या करूँ?
अब मुझे उद्विग्न नहीं करतीं
ओवरकोट या रंग-बिरंगे शोक-वस्त्र
पहने पुरखों की तस्वीरें।
ओ मेरे आत्मीयों! क्षमा करना मुझे
क्षमा करना मेरी उदासीनता को,
मेरे डर और मेरे अवसाद को!
झूठ होगा कहना कि पहचानता हूँ
परिचित-से इन कपालशिखरों या कवचों को...
अस्पष्ट हैं धुंध से ढँके सपने,
खाली हैं ठंड में जमें मधुकोश।
हृदय में न मिठास है न कटुता!
मैं- मधुमक्खी हूँ कंजूस, अंधी और खुश्क।
याद आता है वह दिन:
मैं दुनाय में था।
दो पेड़ों के बीच से होता हुआ
आ गिरा था अधटूटा पत्थर
बहुत दूर सामंती अतीत से।
सुख की अनुभूति हुई थी मुझे
जब बर्फ के बीच दिखाई दी वनस्पतिविहीन जगह
दिखाई दिया पनोनिया में सैन्यदल सहित
घोड़े पर सवार एक दार्शनिक।