मैं क्या करूँ ? / भरत प्रसाद
रोज़-रोज़ उगकर
रोज़ पहली बार उगते हो,
डूबने का मुहावरा तुम्हारे ऊपर लागू कहाँ होता है ?
दमकते हो ऐसे,
जैसे 'अभी नहीं तो कभी नहीं'
'आराम हराम है -- का पाठ पढ़ाने वाला
तुमसे बढ़कर कौन है ?
बिना शोर किए आकाश में उठना
सबक सिखाता है मुझे
मंत्रमुग्ध कर देता है
सुबह-सुबह का टटका प्रकाश
न जाने कब से धरती को रौशन करने की अदा
सिर से पाँव तक भावविभोर कर देती है
शिराओं में बहते तुम्हारे ऋण का रहस्य
मैं कैसे कहूँ ?
तुम्हारा होना ही
धरती का माँ होना है
उसे जीवनदायिनी कहलाने का सम्मान
तुम्हारे सिवा और कौन दे सकता है ?
सृजन करने के लिए नाचने की कला
कोई तुमसे सीखे,
इतना दूर रहकर भी
इतना ज्यादा क़रीब
पृथ्वी के लिए और कौन है ?
जलने, जलने और जलने का मूल्य
तुमसे बढ़कर कौन सिद्ध कर पाया है ?
पत्ते-पत्ते में चमकता है तुम्हारी रोशनी का जादू
पानी होगा मनुष्य के लिए प्राण
पानी का प्राण
तुम्हारे सिवा कोई नहीं
शरीर के किस-किस अंग से
अथक प्रणाम की पुकार उठती है
कह नहीं सकता,
धरती का पिता होने के बावजूद
तुम्हें माँ कहे बगैर रह नहीं सकता,
तुम्हारे प्रकाश के आगे,
सोना क्या चीज़ है ?
मेरे सूर्य !
कैसे बाँधूँ मैं ?
तुम्हारी विश्वव्यापी चमक
कैसे साधूँ तुम्हारी उदारता का इतिहास
कैसे धारण करूँ ?
तुम्हारे नाचने की कला
जीवन के एक-एक दिन पर
चढ़ा हुआ तुम्हारा कर्ज़ उतारने के लिए
मैं क्या करूँ ?
क्या न करूँ ?