भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ? / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ?
जगती के सागर में गहरे
जो उठ-गिरतीं अगणित लहरें,
उनमें एक लहर लघु मैं भी, क्यों निज चंचलता दिखलाऊँ?
मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ?
जगती के तरुवर में प्रति पल
जो लगते-गिरते पल्लव-दल,
उनमें एक पात लघु मैं भी, क्यों निज मरमर-गायन गाऊँ?
मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ?
मुझ-सा ही जग भर का जीवन,
सब में सुख-दुख, रोदन-गायन,
कुछ बतला, कुछ बात छिपा क्यों एक पहेली व्यर्थ बुझाऊँ?
मैं क्यों अपनी बात सुनाऊँ?