मैं क्यों आत्ममुग्ध / प्रमोद कौंसवाल
मैं मुग्ध हूं अपने पर
नहीं हो पाया मोहमंग मुझसे ही मेरा
कोई सुनना पंसद नहीं करता ऐसा कवि मैं
कोई नौकरी नहीं देना चाहता ऐसा नौकर
बात नहीं करना चाहता ऐसा वार्ताकार
आंखें नहीं मिलाना चाहता इस तरह का मिलनसार
मेरे सच पर यकीन नहीं करना चाहता
सुनना नहीं चाहता मुझे कोई ऐसा पुजारी
मैं मुग्ध हूं और मेरा ख़ुद से कोई मोहभंग नहीं
मेरा यह असंवाद तो क्यों सोचा मैंने
मैंने असल में सोचा बार-बार
शायद मैंने ताल से ताल नहीं मिलाया था
मैं मुसलमानों की हत्या में शरीक़ नहीं हुआ था
ईश्वर की देहरी में घंटी नहीं बजाई थी
गांधी की हत्या पर शंख नहीं बजाया
जो बजना चाहिए था श्मशान पर
मैंने हिंदू होकर अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में
खाया भैंसे का मीट
तब मेरी मां ने कहा जा रसोई में मत आना
घर के ऊपरी मंजिल पर ही खाना मिल जाएगा
ख़ैर मैंने दलित को दलित नहीं
काफी ग़रीब और कुचला हुआ कहा
मैंने भारत की संसद के बाहर जाकर
खाक़ उड़ाई और हिंदू-हिंदू कहता हुआ
अपने को ही गालियां देकर
शर्म की पोटली लेकर
लौट आया
कभी कभी मैं ऐसा ही कर लेता था
ग़ालिब-फ़ैज़ को पढ़ डालता
ख़ोटा कभी ख़रा
लिख दिया था और दिल्ली के बिरादरी भाई
कहते थे रे भालेमानुस
क्या है इसमें कुछ भी तो नहीं
मैंने दो कवियों चार कथाकारों पांच गायकों को
सख़्त नापसंद किया था
उन पर लिखी गालियों को बिल्कुल सही
क़रार दिया था नाम कुछ पत्रकारों का लेकर
उन्हें कारोबार नाम दिया था
और उनके होने से किया था साफ़ इनकार
ख़तरनाक क़रार दिया था मैंने
लंबे नाख़ून और कांपती उंगलियों को
ठंड के ज़रा से धुंध को मैंने
जलते जंगल का घुआं कहा था
वाकई में मैंने एक रिवाल्वर चाही थी
और सोचा था कहूंगा बेटों इसको सच कहो यही सच है
पर उनकी संख्या अपार थी क्या कर लेती एक रिवाल्वर
लेकिन ये थे सचमुच ही
फिर हर सच के साथ खड़ा आत्ममुग्ध था
हर दिन के उजाले में
रात-बिरात के अंधेरे में
नीली और ख़ाक़ी वर्दी वालों को मैं बेचारा कहता था
वे तमाम ग़रीब थे
ट्रक ड्राइवरों से पैसा लेते थे हर बैरियर पर
ऊपर बताए कुछ आतताई क़िस्म के लोगों की कारें भी गुज़रती थीं
मैंने कह डाला इनसे भी पैसे लो
पर उन्हें कभी नहीं रोका गया
रोको रोको रोको कह डाला था ज़ोर से
सत्य को संगीत को
सुंदर को हर एक असहाय को
गांवों को राहगीरों को
रात को राख की चिनगारी
कहा था आएंगे अगले रोज़ काम
लेकिन यहां से और छोड़िए जहां कहीं से भी
होने लगे मेरे रास्ते बंद
सोचा-मनन किया मैंने
मैं जो हूं ठीक हूं मैं मुग्ध हूं
मुझे कह डालो घमंडी जैसा कुछ
मैंने अपनी जन्मतिथि लिखनी बंद कर दी
और कवि भाई की सलाह पर
उसे कहीं समंदर में डुबा दिया।
फिर एक बार मैं अपने पिता के पास गया
जो सियासत करते थे और हार की माला
जमते रहते थे साल-साल दर
वह सरदार जी की दाढ़ी से लटके दिखे
वहां वह कहते मैं इस जंगल में हूं
उस जंगल को नहीं जानता पहाड़ में कोई
आज्ञाकारी लौट आया मैं उस जंगल से
जहां विचर रहे थे ज़्यादा तो भ्रष्ट थे
तेंदुओं के झुरमुटों में
जैसे एक जाल के अंदर
जवानों को सीमाओं में मार लिया जा रहा था रोज़-ब-रोज़
उनकी तमाम प्रतिमाओं पर जंगल में
लिखा जा रहा था शहीद शहीद
और पहाड़ के मेरे तमाम घरों में
माएं रोतीं-बिलखतीं रहीं और उनसे
मंच पर कहलाया जाता रहा हमें अपने बेटों पर गर्व है
मैं इसी बेवक़्त कहे जाने वाले समय का ग़वाह बना
और आप जानते ही हैं
दृश्य में दिखा भी नहीं।